जनरेशन गैप (story)


कर्नाटक संपर्क क्रांति, लगभग अपने समय पर भोपाल स्टेशन पर पहुंची थी,रुकने का अनाउंसमेंट अंदर तक सुना जा सकता था, 3rd AC कोच B2 में 38 नंबर बर्थ सर्च करती हुई, लाइट जलाकर अपने सीट का नंबर खोजते हुए,एक युवती पहुंची,पहले मोबाइल के किसी एप से कन्फर्म किया फिर वहां लिखे हुए सीट पर कन्फर्म कर, युवती ने अपना बैग सीट के नीचे रखा और अपर बर्थ पर जा बैठी, रात के 10:30 का समय हुआ था तो अधिकतर लोग सो चुके थे या सोने की तैयारी में थे।
स्टेशन पर यात्रियों के आने के कारण नींद खुलना स्वाभाविक ही है,लेकिन इसको लेकर आपत्ति दर्ज करा भी नहीं सकते क्योंकि यह एक सिस्टम का हिस्सा है और दूसरों को भी ट्रेन में आना ही है और किसी किसी को यात्रा पूरी कर उतरना ही है ।
आखिर उसने सीट पर बैठने के बाद कर्मचारी से प्राप्त कवर में से चादर निकाला उसे बिछा कर लेटने से पहले किसी को काल किया और धीमी आवाज में बात करने लगी,
बीच बीच में मौसी- मौसी कर के संबोधित कर रही थी इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता था कि शायद वह अपनी मौसी से बात कर रही थी उसने बात आगे बढ़ाते हुए कहा,”मौसी क्या हम अपनी जिन्दगी भी नहीं जी सकते?, मैं किसी लड़के के साथ घूमती हूं तो क्या मेरी पढ़ाई बंद करा देंगे?, डेट पर जाना आम बात होती है इस उम्र में, मौसी आप तो कम से कम समझ ही सकती हो”

“दिल्ली में तुम क्या कर रही हो इसका किसी को क्या पता ,पर अपने फोटो इंस्टा पर डालना जरूरी है क्या? दुनिया को बताने की क्या जरूरत है?”

“पर मेरे कुछ करने से किसी को क्या फर्क पड़ता है, मेरी दुनिया अलग है, मैं अब बड़ी हो चुकी हूं, जब मैं देश चलाने का निर्णय ले सकती हूं और वोट दे सकती हूं तो अपने और निर्णय क्यों नहीं ले सकती”
इतने में विदिसा स्टेशन आ चुका था, फिर से दो यात्री ट्रेन के उस कोच में आए और उनके साथ एक 3 साल का बच्चा भी था जो रो रहा था शायद उसे नींद आ रही हो या कुछ और बजह हो,उन्होंने अपनी सीट सर्च करने के चक्कर में दो तीन जगह की लाइट जलाई, किसी को नींद में से उठकर पूछा भी कि आपका बर्थ नंबर क्या है? शायद वह मोबाइल एप का उपयोग नहीं जानते थे जिससे बर्थ और सीट का पता हो, आखिर वह अपनी बर्थ खोज कर अपना सामान सीट के नीचे रख रहे थे, इधर वह लड़की फोन पर कह रही थी
“ट्रेन को भी पैसेंजर बना कर रख दिया हर जगह रुकती है”,बच्चे के रोने की आवाज सुनकर वह और भी चिढ़ गई और बोली, “बच्चे जब पाल नहीं सकते तो करने की जरूरत ही क्या है?”
थोड़ी देर इधर उधर देखा फिर बोली “मौसी मैने कह दिया, मैं अब लौटकर भोपाल नहीं आने वाली, मैं दिल्ली से ही पढ़ाई करूंगी और घर बालों को समझाना आपका काम है,पापा आपकी बात जल्दी मान जाते हैं”
“वो तो ठीक है पर तुम शहर में अकेली रहती हो तो कम से कम यह तो ध्यान रखना कि तुम्हारे कुछ भी करने का फर्क पूरे घर पर पड़ता है”
“ओ हो मौसी, ऐसा कुछ भी नहीं है,और मैं कुछ गलत नहीं करने वाली वैसे भी आजकल की जनरेशन को यह पुराने लोग समझना नहीं चाहते, देखो कल ही जाया बच्चन ने अपनी नातिन के लिए कहा है कि वह विना शादी के भी बच्चे कर सकती है नई जेनरेशन प्रैक्टिकल कर के देख सकती है,पापा और मम्मी तो उसके बड़े फैन हैं उनके परिवार का उदाहरण दिया करते हैं,तो उनकी बराबर समझ भी रखें”
“अब यह फालतू बातें पापा के सामने मत कर देना नहीं तो तुझे भोपाल से ही पढ़ना पड़ेगा”
“अच्छा ठीक है अब मुझे नींद आ रही है, गुड नाईट” यह कहते ही उसने फोन काटा और देखा अब तक लाइट बंद नहीं हुई थी, सामने की बर्थ पर एक सज्जन लेटे हुए थे जिनके हाथ में एक किताब थी। वह सज्जन दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज के प्रोफेसर थे।

आपका जो पेशा है या जो कर्म है उसका असर आपकी जीवन पद्धति में सबसे जायदा पड़ता है आप उसी के अनुसार सोचते हैं और वैसे ही आगे बढ़ते हैं, जैसे यदि आप पुलिस में है तो क्रिमिनल के हिसाब से सोचना पड़ेगा,इनकम टैक्स में हैं तो टैक्स चोर के हिसाब से,डॉक्टर हैं तो मरीज के हिसाब से और टीचर हैं तो बच्चे के हिसाब से,प्रोफेसर हैं तो युवाओं के हिसाब से ।
वह प्रोफेसर साहब इस वार्तालाप को सुन रहे थे,और बोले “कहां जा रहे हो बेटी, दिल्ली?”
“जी अंकल,”
“वहां पढ़ते हो क्या?”
“जी दिल्ली यूनिवर्सिटी में”
“यूनिवर्सिटी कैंपस में या किसी कॉलेज में?”
वह समझ गई यह कोई जानकार हैं और बोली “कॉलेज में नहीं पढ़ती बस दिल्ली यूनिवर्सिटी के पास मुखर्जी नगर रहकर कंप्टीशन की तैयारी कर रही हूं”
प्रोफेसर साहब को कॉलेज में पढ़ाते- पढ़ाते 20 वर्ष हो चुके हैं वह किसी साइकोलॉजिस्ट से ज्यादा बच्चों को समझते हैं, इसलिए आगे बात जारी रखी,पहले अपना परिचय दिया फिर उससे पूछा “अच्छा बेटा यह बताओ इस समय यदि ट्रेन के इस कोच में चार सीट दूर कोई नया पैसेंजर आता है तो हमें फर्क पड़ेगा क्या?
“हां अंकल किसी के बच्चे रो रहे हैं, कोई कम्बल मांग रहा है कोई लाइट जला रहा है तो फर्क तो पड़ेगा ही”
ऐसे ही हमारी जिंदगी है,हम सब एक ट्रेन में सफर कर रहे हैं अलग अलग बर्थ पर, हम भले ही सोचें कि हमारी बर्थ स्वतंत्र है,लेकिन हमारे फोन पर बात करने से,लाइट जलाने से किसी के बच्चे के रोने से आस पास फर्क पड़ेगा,यदि किसी की यात्रा पूरी हो चुकी वह तेज आवाज में कहेगा चलो- चलो घर आगया, लेकिन जो बीच यात्रा में है वह भी प्रभावित होगा,नींद से जागेगा और टाइम देखेगा,स्टेशन कन्फर्म करेगा फिर सो जायेगा क्योंकि उसकी यात्रा लंबी है,लंबी से मतलब यह भी हो सकता है कि उसकी यात्रा देर से शुरू हुई है”
लड़की उनकी बात सुनती रही वह समझ गई कि यह उसकी बातें फोन पर सुन रहे थे
उन्होंने आगे कहा ऐसे ही “हमारे कुछ करने न करने का फर्क हमारे घर पर नहीं पड़ता यह सोचना गलत है”
वह उनकी बात सुनकर चुपचाप कम्बल के अंदर मुंह कर सो गई।
सुबह 7 बजे ट्रेन दिल्ली स्टेशन पर पहुंची तो लोअर बर्थ पर लेटे सज्जन उन प्रोफेसर साहब से कहने लगे
“आजकल के बच्चों को समझाना मूर्खता है,इन्हें जो कर रहे हैं करने दो, यह देखकर नहीं भुगत कर सीखने वाली पीढ़ी है”
प्रोफेसर साहब मुस्कराए और बोले “ऐसा नहीं है,यदि आप किसी बैलून में ज्यादा हवा भरोगे तो वह टूट जाएगा,ऊर्जा को छोटे पात्रों में रोकना चाहोगे तो पात्र टूटेगा,पानी को एक जगह डालोगे तो वह बह कर आगे पहुंचेगा, अब हमारा काम है कि उस पानी को बहाव के लिए दिशा दें या दिशा बनाने में मदद करें, उस ऊर्जा को इतना बड़ा पात्र दें कि यह टूटे न, जो पत्र उनकी पात्रता से बड़ा हो,यह पीढ़ी भ्रमित हो सकती है यदि हमारा संवाद नहीं होगा, इसके भ्रमित होने का मतलब हम असफल हुए हैं, नई पीढ़ी नहीं,यदि आप अपने बच्चों को रास्ता नहीं दिखा पाओगे तो जया बच्चन का नियम ही उनके लिए रास्ता होगा”
इतने में ट्रेन पूरी तरह रुक चुकी थी, कुली – कुली – कुली ,400 रुपए,असुविधा के लिए खेद है…… इस प्रकार की आवाजें चारों तरफ से आ रही थी ।
स्टेशन से बाहर निकल कर सभी की अलग अलग दिशाओं में यात्रा शुरू हो चुकी थी
मनीष भार्गव
#बेरंगलिफ़ाफ़े

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