आदेश और प्रशासन

कुछ वर्ष पूर्व की बात है मैं मध्य प्रदेश शासन में दतिया जिले में कार्यरत था, उसी दौरान भोपाल वित्त विभाग से एक बहुप्रतीक्षित आदेश आया था, जिसकी हिंदी शुद्धतम स्तर की थी व जिसके अर्थ श्लेष अलंकार को भी फीका करते हुए प्रतीत हो रहे थे,और उसके आधार पर कुछ कर्मचारियों को पांचवे वेतन आयोग के कुछ लाभ दी जानी थी। डिपार्टमेंट के उस आदेश के आधार पर एसडीम साहब को कुछ निर्णय लेने थे, पर उन्हें समझ में नहीं आ रहा था उन्होंने कहा “पता नहीं यह क्या कहना चाहते हैं?” और उसी पत्र को स्थापना बाबू को मार्क कर दिया, मैं उस पत्र को उठाकर पढ़ने लगा, मैंने कहा “सर लैटर क्लियर नहीं है, क्यों न मार्गदर्शन मांग लिया जाए?”

वह बोले “ऊपर से लैटर आगया यही बहुत है,यह अज्ञानता में नहीं कूटनीतिक भाषा है,कोई फायदा नहीं है,बाबू को सब पता है क्या करना है”

मैं बाबूजी के पास आदेश लेकर पहुंचा और बाबू जी से बात की तो उन्होंने आदेश देखकर कहा, “क्या समझ में नहीं आ रहा?, सब क्लियर है,बड़े दिन बाद यह आदेश आया है, पटवारी आजकल हवा में उड़ रहे हैं अब देखता हूँ सबको,”

बाबूजी को आदेश क्लियर हो न हो पर भी उनका कार्य स्प्ष्ट था, जिसमें घाटा हो वह करेंगे तभी लोग चढ़ावा देंगे,

मैंने पूछा “बाबूजी यदि इसका गलत अर्थ निकाल कर कुछ गलत होगया तो?”

“तो क्या?” सिर मटकाते हुए बाबूजी बोले “हम तो फिक्सेशन कर देंगे, जो हमें समझ में आएगा उसके हिसाब से कर देंगे, गलत होगा तो अपील करें,हम भोपाल बालों जैसे लेट लतीफी करने वाले नहीं है यहाँ तुरंत काम होगा,”

मुझे लगा कि कम से कम चलो बाबू स्पष्ट तो है एसडीम साहब की तरह धोखे में तो नहीं है आखिर में बाबूजी ने उसी से अपने हिसाब से फिक्सेशन कर दिया और लागू कर दिया ।

वैसे भी पटवारियों की कोई सुनता नहीं है और उनका बौद्धिक स्तर वित्त विभाग पर अपना समय बर्बाद करने की मंजूरी भी नहीं देता,उनकी डिपार्टमेंट में कोई ज्यादा सुनवाई होती भी नहीं है।

लेकिन मेरे मन में उस आदेश को लेकर संदेह बना रहा और लगभग 6 महीने बाद मुझे भोपाल जाने का मौका मिला,मैं समय निकालकर उसी विभाग में उप सचिव महोदय जिनके हस्ताक्षर से पत्र जारी हुआ था के पास जा पहुंचा, उनके सामने पत्र की प्रति व अपनी बात रखी उन्होंने सबसे पहला यही सवाल किया “कौन मूर्ख एसडीएम बैठा है तुम्हारे यहाँ?” मैं पहले थोड़ा डरा, लेकिन मैंने उन्हें एक एसडीएम साहब का नाम ले दिया जो रिटायर हो चुके दो महीने पहले, उन्होंने पत्र देखा और बोले, “बाबू से पूछो वह बताएगा,”

मैं वहां बाबूजी के पास जा पहुंचा, मंत्रालय के बाबू किसी कलेक्टर से कम नहीं होते,बड़े बड़े अधिकारी तो उनके हाथ जोड़े ही खड़े रहते हैं,पहले तो वह सुनने को तैयार ही नहीं हुए, लेकिन उनकी ही भाषा में कुछ भविष्य का लालच दिखाकर मैंने मना लिया, बाबूजी बोले “पंद्रह आईएएस ऑफिसर जीवन में देख चुका हूं, अगर इन्हें इतना पता होता,कि किस चीज पर हस्ताक्षर कर रहे हैं तो बात ही क्या थी,यह यहां अनपढ़ मंत्रियों के सामने रोज बेज्जती न कराते या जी हुजूरी क्यों करते?”

फिर एक पत्र निकाल कर मुझे दिया जिस पर 1972 की तारीख थी और जो पुराने समय के ठक ठक करने वाले टाइप राईटर से छापा गया था, उसकी भाषा ही उन्होंने कॉपी कर दी थी।

बाबूजी ने कहा “इसको कॉपी किया है, इससे पहले 1972 में इस प्रकार का प्रकरण आया था”

मैं वहाँ से बापस आगया फिर भी नहीं माना, मैंने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत डिपार्टमेंट से उस के संदर्भ में जानकारी मांगी, एक महीने बाद बड़ा ही स्पष्ट भाषा में जवाब आया कि हमारा काम सिर्फ नियम बनाना है नियमों की व्याख्या करना नहीं है, मैंने हाथ जोड़ कर उन सभी महानुभावों को नमन किया, उस दिन मुझे कई सवालों के जवाब मिल चुके थे। उसके दो वर्ष बाद उसी भाषा में एक पत्र शिक्षकों के लिए आया, और आज तक उसके लिए शिक्षक व उनके नेता लड़ रहे हैं लेकिन आज तक वह समझ नहीं पाए कि उनके साथ हुआ क्या है?, उन्हें लगता है सरकार ने उनके साथ धोखा दिया है लेकिन उन्हें नहीं पता कि उनकी फिरकी कौन ले रहा है।

मनीष भार्गव

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